बाबा
साहबः सुगत कविरत्न शांतिभिक्षु की दृष्टि में
श्रीनारायण सिंह
महारकुलावतंस
बुद्धपुत्र जननायक मूकनायक दलितसम्मानोन्नायक त्रिरत्नसरणागत नवयुगविधानविधायक
बोधिसत्व बाबा साहब भीमराव रामजी अम्बेडकर आधुनिक युग में उत्पन्न हुए सज्जन
महापुरुषों में एक हैं। सुगत कविरत्न शांतिभिक्षु नें तो इन्हें सर्वश्रेष्ठ कहा
है –
तेषामत्रावतीर्णानां सुजनानां युगे नवे।
भीमं संस्मर्तुमिच्छामि शताब्द्यां
नरपुंगवम्।।
भला कहें तो क्यों न
कहें ? जिसका संपूर्ण जीवन ही जातीय स्वाभिमान, जात्योत्थान, सामाजिक समरसता तथा
राष्ट्र निर्माण के लिए समर्पित रहा हो, वह श्रेष्ठ नहीं
होगा तो अन्य कौन श्रेष्ठ कहा जाएगा।
संघसेन ने अपनी
अभिव्यक्ति निम्नलिखित शब्दों में दी है –
बुद्ध-पुत्रं महाभागाम्बेडकर नामकम्। बोधिसत्त्वं च संप्राप्य भारतं भा-रतं गतम्।।
संत्रस्ताः दलिता लोकाः क्षेत्रे क्षेत्रे पथे पथे। याचमाना विलोकोन्ति देहि मां देहि मामिति।।
दतं च भीमकैस्तत्र तेषां
हस्तेषु सादरम्ं। एकस्मिन् क्षुच्छमं चूर्णमन्यत्र धर्म-मसनदम्।।
अर्थात् बुद्धपुत्र
अंबेडकर नामक बोधिसत्त्व को पाकर भारत देश भारत( भा- प्रकाश-युक्त, भा- कल्याण में रत) हो गया। तत्कालीन सामाजिक
व्यवस्था में संत्रस्त पीड़ित लोग स्थान स्थान पर, पग पग
पर मुझे दो मुझे दो कहते हुए हाथ फैलाए कुछ पाने की आशा में याचना करते हुए देखे जाते
थे। अम्बेडकर ने सादर उन्हें दो चीजें प्रदान किया, एक हाथ में भूख मारक
चूर्ण(फाँकने के लिए) तथा दूसरे हाथ में
सम्मान के साथ जीने के लिए धर्म।
कालजेता बाबा साहब के व्यक्तित्व निर्माण में
सामाजिक परिस्थितियाँ तो कारक थीं ही, पर पिता के सहयोग, सदुपदेश तथा गुरुजन की सद्प्रेरणा नें भीमराव रामजी ने अपने गुरु की
उपाधि अम्बेडकर( जो गुरु के गाँव का नाम था) से स्वयं को विभूषित किया तथा अपने साथ गुरु को भी अमृतत्व प्रदान किया। पिता
के उपदेश –“ दलितां
जनतामेतामुद्धर त्वं मतंगज। लोके त्वं भव भव सर्वेषां हीनानां लोकनायकः।।“ के अनुपालन में भीमराव ने लंदन से लौट कर अंत्यजों दलितों के उत्थान तथा
सम्मान के लिए अपना जीवन समर्पित करनें का व्रत लिया तथा उनके सम्मानार्थ आंदोलन
करनेका संकल्प लिया – “कर्तुमान्दोलनं स्वस्य
लोकस्योन्नतिकाम्यया। करोतिस्म व्रतः धीरः धीरःस्वजीवन समर्पणात्।।“
संसार में विरले ही मनुष्य होते हैं, जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर धनार्जन की कामना त्याग कर दलितों की सेवामें
स्वयं को समर्पित कर देते हैं। पिता की ही प्रेरणा से उन्होने दलितों में, अंत्यजों में यह भाव भरा –
‘ मुक्ताभवेयुरस्पृश्यास्त्यक्त्वा स्वां
दुर्गतां दशाम्।‘ अर्थात् अछूत लोग अपनी दुर्गतिवाली दशा से
मुक्त हों। शाति भिक्षु ने अपने ‘भीमाम्बेडकरशतकम्;’ में शांति तथा अहिंसा का आश्रय लेकर, सामाजिक समरसता
का ध्यान रखते हुए कहीं भी सामाजिक समरसता के विचार के विरूद्ध कुछ भी नहीं लिखा
है। कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अध्ययन करते हुए भीमराव को जाति भेद की व्यवस्था नहीं
दिखी – “विचित्रंमपराधीनं भेदभावविवर्जितम् “ सबका साथ सबका विकास की धारणा यहीं उनमें बलवती हुई। यहीं उनके भीतर यह
भावोत्पन्न हुआ कि अन्त्यजों को भी यथाशक्ति यथावसर शिक्षित किया जाना चाहिए
-
तस्मादतिप्रयत्नेन
लब्धशिक्षा शुभोदया। अन्त्यजा अपि कर्तव्या यथाशक्ति यथाक्षणम्।।
बड़ौदा राज्य की छात्रवृत्ति प्राप्ति के पूर्व
उनका जीवन अति संघर्षपूर्ण था । भीमराव के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार मात्र हिंदुओं
ने ही नहीं किया था, बल्कि मुस्लिम, ईसाई तथा पारसी धर्मावलंबियों ने भी अपमानजनक वर्ताव किया था।
हिंदुभिर्या कृता तत्रावमानजननी
क्रिया। अनुकृतेव
सा ख्रीष्टैर्यवनैः पारसीकजैः।।
शायद यह भी एक कारण रहा हो बौद्ध धर्म के प्रति
उनके मन में अनुराग का जहाँ जातिगत भेदभाव का अभाव था, जन गण मन के प्रति सद्भाव था।
अहिंसा मूलमंत्र था । अनेक विधापमान सहे, किंतु विभिन्न धर्मावलंबियों से समृद्ध
इस मधुमय देश को भीमराव साहब ने वह अकल्पनीय भेदभावविहीन विधि संहिता भेंट की
जिसके विषय में कवि शांतिभिक्षु कहते हैं-
भारताय
स हि प्रदाद् विमलां स्मृतिसंहिताम्। मनुना या न दत्तात्र यागवल्क्येन नापि या।।
ऐसी विधि
संहिता न मनु ने दी थी, न हि यागवल्क्य ने। अंततः अपने
काव्यनायक के विषय में कवि यह कह पड़ता है – ‘’भारते जनता
यावत्स्थास्यतीह धरातले । तावद् भीमस्य वार्ता
सा चरिष्यति चरिष्यति।‘’ जब तक विश्व में जनजीवन
रहेगा, तब तक लोक में बाबा साहब की बातें होंगी, उनके कार्य
एवं विचार अमर रहेंगे।